अन्य

समाज के पिछड़ों के महानायक और सर्वमान्य नेता थे बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया

बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया जन्म दिवस 13 मार्च पर विशेष

बस्ती। जनपद में आज बाबू शिव दयाल सिंह चौरसिया की जयंती पर तमाम चौरसिया समाज के लोग ने एकत्रित होकर बड़ी संख्या में मनाया जन्मदिन को मनाया गया।
जिले में चौरसिया उत्थान समिति ने बाबू शिव दयाल सिंह चौरसिया का जयंती समारोह का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में डा लालू राम भारद्वाज पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एपीएनपीजी कालेज व चौरसिया उत्थान समिति बस्ती के अगुवाई में किया गया। चौरसिया समाज के लोगो ने बताया कि यह जयंती बस्ती मैरेज हाल बरगदवा बड़ेवन बांसी रोड बस्ती में बड़ी धूमधाम से मनाया गया। जिसमे समिति के उत्थान के लिए राज कुमार चौरसिया का भूमिका अहम रही। वही चौरसिया समाज के लोग ने बताया कि बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया चौरसिया समाज के एक ऐसे मूर्धन्य नेता, समाज सेवक और समाज को दिशा देने वाले शख्स हुए हैं जिन्होंने देश में अदद क्रांति का शंखनाद किया था। उस वक्त देश गुलाम था और गुलामी के पृष्ठभूमि में बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया ने वह सब कुछ देखा था जो सामाजिक विषमता के चक्रव्यूह में छोटे-छोटे जातियों के जो लोग पिछड़े हुए थे और दबंगों द्वारा उन्हें तरह-तरह के अपमानित और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता था। ऐसे में समाज को दिशा देने के लिए समाज को चौरस करना आवश्यक था। बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया ने यह काम अपने कंधों पर उठाया और डॉ भीमराव अंबेडकर को मार्गदर्शन देते हुए संविधान में अधिकार और कर्तव्य को एक पृष्ठभूमि में जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। काका कालेकर साहब के साथ उनका संबंध बेहद उम्दा था। डॉ भीमराव अंबेडकर को उन्होंने मौके- मौके पर वह सलाह मशविरा देते थे। साथ ही साथ उन्हें आगे बढ़ाने और उन्हें ताकत देने में उनका योगदान सर्वोपरि था। मान्यवर कांशी राम को ऊंचाइयां देने में भी इनका श्रेय कम नहीं था।

हमारे वर्त्तमान इतिहास में भी बहुजनों के बहुतेरे ऐसे नायक हैं जिनके बारे में हम या तो बिलकुल नहीं जानते या फिर बहुत कम जानते हैं। शिवदयाल सिंह चौरसिया इसी श्रेणी के एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व का नाम है। चौरसिया कहा करते थे, “मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही दम लूंगा।” और वे जीवन पर्यंत बिना दम लिए उच्च-नीच के भेद-भाव को चौरस करने में लगे रहे।

इनका जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में 13 .3 1903 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम पराग राम चौरसिया था। इनका सुनारी का पैतृक व्यवसाय था। बचपन मे ही इनकी माता की मृत्यु हो गई थी। वह पढ़ाई-लिखाई में शुरुआत से ही बहुत कुशाग्र थे। इन्होंने विलियम मिशन हाईस्कूल, लखनऊ से मैट्रिक और कैनिंग कॉलेज से बीएसी और एलएलबी की डिग्री हासिल की। उस समय के आम चलन के अनुसार अन्य स्वतंत्र चेता लोगों की तरह ये भी बैरिस्टर बने। इनकी पत्नी का नाम रामप्यारी था। चौरसिया दम्पति को तीन लड़के और एक लड़की हुई। बेटी का ब्याह बिहार के पटना जिले के बाढ़ में किया था।

इन्होंने डॉ. अंबेडकर के साथ डिप्रेस्ड लीग में काम किया तथा रामासामी नायकर पेरियार को पिछड़ा वर्ग सम्मेलन में उत्तरप्रदेश में बुलाया था। लखनऊ के भदन्त बोधनंद जी ने बाबा साहेब से चौरसिया जी को मिलाया था। उन्होंने साइमन कमीशन का स्वागत किया और 5 जनवरी 1928 को उसके लखनऊ आगमन पर उसके समक्ष वंचितों के वाजिब हक-अधिकार की मांग रखी। पिछड़े समाज के विभिन्न जातीय संगठनों द्वारा दिए जा रहे ज्ञापन तथा गवाहों की सुनवाई में हिंदी को अंग्रेजी में अनुवाद कर कमीशन के समक्ष दुभाषिये का काम किया और उसका ड्राफ्ट बनाने में कानूनी मदद की। कार्यक्रम के अंत में इन्होंने अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया। 1929 में वकालत शुरू की, कैसर बाग कचहरी परिसर में अपने बैठने की जगह की दीवाल पर अनेक क्रांतिकारी उद्धरण वाक्य लगाए रखते थे। ये उद्धरण सामाजिक भेदभाव और उच्च-नीच के खिलाफ होते थे।

उन्होंने लखनऊ के अपने साथियों – एडवोकेट गौरीशंकर पाल, रामचरण मल्लाह, बदलूराम रसिक, महादेव प्रसाद धानुक, छंगालाल बहेलिया, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, रामचंद्र बनौध, स्वामी अछूतानंद आदि के साथ मिलकर बैकवर्ड क्लासेस लीग की स्थापना की। बाद में, देश भर में इसका गठन किया। तभी से अपने आवास पर कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग के लिए शानदार व्यवस्था कर रखी थी जिसे वह जीवन भर चलाते रहे। वहां सभी के लिए रहने और खाने की उत्तम व्यवस्था रहती थी।

प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन पर 29 जनवरी 1953 को चौरसिया जी को उसका सदस्य मनोनीत किया गया, जिसका अध्यक्ष काका कालेलकर को बनाया गया था। इनके द्वारा पिछड़ों की स्थिति के बारे में अलग से 67 पृष्ठों की एक रिपोर्ट बनाई गई थी जिसने बाद में मंडल कमीशन के समय उसकी रिपोर्ट तैयार करने में एक मार्गदर्शक आधार का काम किया।

पिछड़ी जातियों को एकजुट करने के लिए वह देशभर में घूमते रहते थे। जिधर से भी बुलावा आता, सब निजी काम छोड़कर बिना देर किए पहुंच जाते। इससे पिछड़ों में बहुत जागरूकता आई और भाईचारा बढ़ा।

1967 में इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से लोकसभा चुनाव भी लड़ा। 1974 में कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश से इन्हें राज्यसभा भेजा। वह प्रसिद्ध उद्योगपति के. के. बिड़ला को चुनाव में हरा कर राज्यसभा में गए। वह सांसद रहकर देश के गरीबों के लिए विधि निर्माण में लगे रहे। इनका कार्यकाल सन 1974 से 1980 तक रहा।

वंचितों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य था। इस कार्य में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को पूर्व में ही प्रभावित कर उसे विश्वास में ले लिया था। इनके सतत प्रयासों से ही अदालतों में गरीबों के लिए नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून बनाकर इस व्यवस्था को सरकार ने अपनाया। लोक अदालतें उसी विधिक प्रक्रिया की अगली कड़ी हैं। यह चौरसिया जी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

चौरसिया अपने जीवनकाल में अनेक उच्च पदों पर विराजमान रहे और देश के महत्वपूर्ण लोगों के साथ उनका सानिध्य था। वह राज्यपाल रहे माता प्रसाद के कानूनी सलाहकार भी रहे थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह इनसे मिलने इनके लखनऊ स्थित आवास पर पधारे थे।

गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच एन भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी है। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।डॉ राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60% की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड़ लिया। चौरसिया जी और साथियों का कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं। अगर महिलाओं का % निर्धारित नहीं किया जाएगा तो 60% के आरक्षण का अधिकांश भाग ऊंची जातियों के हक में ही चला जाएगा। लोहिया जी सहमत नहीं हुए और नारा दिया-
“संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”
लोहिया जी की साठ वाली बात भी “सांठ-गांठ” में तब्दील हो गई। चूँकि लोहिया गांधीवादी नेता थे। आप जानते हो गांधीवादी, ब्राह्मणवादी होता है और ब्राह्मणवादी सदैव बेईमान होता है। ब्राह्मणवादी बहुजन के हक को मारकर अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6783 जातियों के लोग सॉफ्ट टारगेट पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीड़ित करने में देर नहीं लगाते।

इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय-समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया। भारत में संवैधानिक सुधारों के द्वारा वंचित वर्गों को उनका हक और अधिकार देने के पक्ष में आया था। परंतु उच्च वर्णिय लोगों को बहुजन पर शासन करने की आजादी खिसकती हुई नजर आने लगी। इसलिए उन्होंने जोरदार विरोध किया। यह संवैधानिक व्यवस्था की शुरुआत थी। उपरोक्त विधान के तहत साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा शुरू कर दिया। और वंचितों को शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय सांविधिक आयोग ने 5.1.1928 में लखनऊ का दौरा किया। हजारों की संख्या में भीड़ में एकत्र होकर विभिन्न संगठनों पार्टियों दबाई-सताई वंचित समाज की विभिन्न जातियों आदि द्वारा साइमन सर को ज्ञापन सौंपे गए।

 

वंचित समाज की विभिन्न जातियों संगठनों द्वारा दिए गए ज्ञापन तथा बतौर गवाहों की हिंदी में व्यक्तिगत सुनवाई को अंग्रेजी में अनुवाद कर साइमन सर को बताना, व लिखकर देना चुनौतीपूर्ण कार्य कर उन्होंने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। कार्यक्रम के अंत में स्वयं डिप्रेस्ड क्लासेज की ओर से अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया।

अन्य पिछड़ी जातियों के हक और अधिकारों की रक्षा

लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अछूतों के अलावा शूद्र जातियों को प्रतिनिधित्व (तथाकथित आरक्षण) देने के लिए बाबा साहब को साफ मना कर दिया और कहा कि हमें आरक्षण की क्या जरूरत। फिर भी डॉ.अंबेडकर ने शूद्र जातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग बना दिया तथा उनके लिए संविधान में प्रतिनिधित्व पाने के हक की व्यवस्था कर दी।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29.1.1953 में भारत के राष्ट्रपति जी द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु एक आयोग गठित किया गया। चौरसिया जी आयोग के महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी सदस्य मनोनीत किए गए। इस संबंध में 30.10.1953 को वह डॉ.अंबेडकर के विचार विमर्श हेतु दिल्ली गए थे। आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर पूना के निवासी एक ब्राह्मण थे। उन्होंने चौरसिया जी के द्वारा बनाई गई रिपोर्ट अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में ही दी जिसे देखकर नेहरू आग बबूला हो उठे थे। नेहरू ने काका कालेलकर से ना चाहते हुए भी रिपोर्ट खारिज करने की सिफारिश लगवाई। नेहरू ने 16 वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहकर उच्च वर्णों की उन्नति और मूलनिवासी बहुजनों की अवनति के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। न्यायपालिका में भी अपने समर्थक आर्य-ब्राह्मण न्यायाधीशों की नियुक्ति करवाते रहें ताकि भविष्य में मूलनिवासियों को कोई हक और अधिकार मिलने के पक्ष में कभी कोई निर्णय न होने पाए।

काका कालेलकर के द्वारा दिए गए विरोधाभासी पत्र ने चौरसिया जी एवं डॉ अंबेडकर जी के जीवन भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। यह अन्याय न केवल उनके साथ बल्कि करोड़ों पिछड़ों के साथ हुआ और उन जातियों को सदैव आर्यों की दासता का जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया।

इस सब के बावजूद चौरसिया जी चुप और शांत नहीं बैठे। अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद करने के लिए देशभर के प्रायः सभी राज्यों में अपना संघर्ष और आंदोलन तेज कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों के लोग चुनकर संसद में आने लगे और उनके अंदर दासता के विरुद्ध जागरुकता एवं विद्रोह का संचार पनपने लगा। चूँकि संवैधानिक हक पाने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है परंतु संसद में बहुमत ना होने से यह मामला ब्राह्मणवाद की चोट और धोखा खाकर संसद में लटक रहा है। इन जातियों की सांसो की डूबती हुई धड़कनों को बचाने के लिए बहुत विलंब से वर्ष 1989-90 में मा. विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ऑक्सीजन तो दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की पूरी मात्रा देने से रोक लगा दी।

दोनों की परस्पर समान विचारधारा होने के कारण एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगे। काशीराम जी (बामसेफ डीएस4 BSP के संस्थापक) एक जुझारू व्यक्ति थे। उस समय तक पिछड़े वर्ग के पास ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो इस समाज की दिशा एवं दशा को तय करती। प्रिंट मीडिया पर केवल आर्यों का ही एकछत्र अधिकार था। इस समय तक बहुजन समाज में अनेक विचारक और चिंतक हुए परंतु अपनी अपनी जाति तक ही सीमित रहे और अपनी जाति की ही डोर पकड़कर कटी पतंग की तरह अधोगति को प्राप्त हुए।

डी के खापर्डे, दीना भाना एवं काशीराम जी ने इस बुराई को पहचाना और एक ऐसे संगठन की रूपरेखा तैयार करने में लग गए जो समस्त पिछड़े वर्ग (SC ST OBC MC) के लिए हो। उन्हें एक झंडे के नीचे रखकर उनके हितों की रक्षा के लिए एक नए जोश-खरोश के साथ संघर्ष शुरू किया। चौरसिया जी ने तन मन धन से सहयोग देकर इस संगठन की हौसला अफजाई की।

राज्य में सत्ता परिवर्तन के समय उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद खुशी के दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ।

चौरसिया जी 18.9.1995 का मृत्यु हुआ। पर ,वे एक बहुत बड़ा अनसुलझा प्रश्न छोड़ गए हैं जिसको वह अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर पाए। वह कहा करते थे कि पिछड़ा(SC ST OBC) और अल्पसंख्यकों (MC) की जातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर न्यायालयों, सरकारी नौकरियों आदि में प्रतिनिधित्व कब मिलेगा ?सही मायने में, शिवदयाल सिंह चौरसिया देश भर के पिछड़ों के एक सम्मानित वयोवृद्ध नेता थे। उनके योगदान को चौरसिया समाज अवश्य भूल गया है और आज उसके नेता उन वर्गों के पीछे दौड़ भाग रहे हैं जो चौरसिया समाज सहित अन्य पिछड़े वर्गों को पिछले श्रेणियों में देखना चाहते हैं। चौरसिया समाज के चंद नेता अपने चंद स्वार्थों के कारण चौरसिया समाज को पीछे धकेल रहे हैं और समाज को तोड़ने की दिशा में काम कर रहे हैं। ऐसे लोग सिर्फ पाखंडवाद पर समाज को चलाना चाहते हैं। सही दिशा नहीं देना चाहते, क्योंकि वह जानते हैं कि चौरसिया समाज का उत्थान और विकास हुआ तो उनको पूछने वाला और मंचो पर फूल, माला, माइक देने वाला कोई नहीं रहेगा।

संबंधित समाचार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button