ओपिनियन

अब कहाँ रही वो होली और वो हुड़दंग

होली का हुड़दंग व होली का खुमार कहीं नजर नहीं आ रहा है। एक ज़माना हुआ करता था जब होली के रंग व हुड़दंग 10-15 दिन पहले से ही शुरू हो जाते थे और घर से बाहर निकलने के पहले कपड़ों को बदलना पड़ता था। कोई भी नाली ऐसी नही होती जिसके कीचड़ का इस्तेमाल न किया गया हो और गोबर, सड़े टमाटर व अंडे की खपत ख़ूब होती थी। हमें याद है कि हुड़दंगी टोली होली के 10- 15 दिन पहले से ही इन सारी चीजों का इंतज़ाम कर रखती थी मसलन सब्ज़ी वाले के यहां से खराब टमाटर शाम होते होते इकट्ठा कर लिया जाता और अंडे की दुकान से अंडे खरीद लिये जाए बस इंतज़ार होता कि कोई राहगीर या मुहल्ले पड़ोस का कोई व्यक्ति सामने से गुज़र जाए और ज्यों ही वह गुजरता एक टमाटर या अंडे को उसकी पीठ पर दे मारते।

इसके बाद जो हम चाहते वही होता वह व्यक्ति तुरन्त ही आपे से भर हो जाता और भद्दी भद्दी गालियां देते हुए बहुत कुछ कहता और थक हार कर चला जाता। ज्यों रात होती मिट्टी की हांडी का इंतज़ाम हो जाता और उसमें धूल गोबर आदि डालकर लोगों के घरों में फेंक देते। आज एक दो दिन पहले भी होली का कोई खुमार सड़क व गली में नज़र नहीं आता न ही कोई किसी पर रंग धूल व कीचड़ फेंक रहा है। इसका दो ही कारण हो सकता है या तो लोगों में शिक्षा की बदौलत जागरूकता आई है या फ़िर लोगों को डर है कि अगर हम कीचड़ धूल गोबर आदि किसी पर फेंकते हैं तो विवाद हो सकता है।

वैसे अब और तब की होली में बहुत फ़र्क़ हो चुका है पहले हम होली का नाम सुनते ही मचल उठते थे और पहले होलिका की तैयारी में मुहल्ले मुहल्ले जाकर गोबर के उपले व लकड़ियां चुराते और इसके लिये गालियां भी सुनना अच्छा लगता और डंडे भी खाने पड़ते। लोग शाम के बाद अंधेरा होते ही अपने अपने उपले की रखवाली करने शुरू कर देते और ज्यों ही उन्हें हमारी टोली के आने की आहट मिलती अपनी लाठी लेकर खड़े हो जाते। लेकिन इन सबके बाद भी हम कहाँ मानने वालों में थे किसी न किसी तरह रखवाली करने वाले का ध्यान इधर उधर बंटा कर उपलों की चोरी कर ही लेते थे।

सुबह नाश्ते के बाद पिचकारी रंगों से लोड कर हम सड़क पर हर आने जाने वालों को अपनी पिचकारी का निशाना बनाते और कोई कोई तो आपे से बाहर हो हमें दौड़ा लेता लेकिन कुछ के बीच बचाव के बाद हम बच जाते। गुब्बारों में रंग भर कर किसी पर मारने का अपना अलग ही मज़ा होता क्योंकि गुब्बारा किसी की पीठ पर ज्यों ही फूटता हम शोर करते हुए निकल भागते। रंगों को छुड़ाने व घर से पिटने के डर से हम होली कर मौमस में कई दिन नदी में स्नान करते और फिर घर आते। आज और कल की होली में जो फ़र्क़ है उसमें शिक्षा का भी अपना अहम योगदान है और अब वो लोग भी नहीं रहे जो रंग कीचड़ व गोबर से रँगने के बाद भी हँस कर टाल दें कि चलो भाई होली है और बच्चे हैं। हमें रंग किसी पर रंग डालते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कहीं उक्त व्यक्ति ज़रूरी काम से तो बाहर नहीं जा रहा या उसका स्वास्थ्य ख़राब है।

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