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राजस्थान में पुरानी पेंशन बहाली के फैसले को यूपी विधानसभा चुनावों में कितना भुना सकेगा विपक्ष

राजस्थान सरकार ने पुरानी पेंशन स्कीम (Old Pension Scheme) बहाल कर क्रिकेट की भाषा में कहें तो छक्का जड़ दिया है. हालांकि बजट पेश करते हुए राजस्थान सरकार ने और भी कई जबरदस्त चुनावी फैसले लिए हैं, पर पुरानी पेंशन बहाल करने का कांग्रेस सरकार के इस फैसले का यूपी चुनाव के बचे 3 चरणों पर निश्चित ही प्रभाव पड़ने वाला है. यह अलग बात है कि इस फैसले का लाभ कांग्रेस को नहीं होने वाला है पर राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत के इस फैसले ने कांग्रेस पार्टी के धुर विरोधी बीजेपी को जरूर परेशानी में डाल दिया है.

यूपी के चुनावों में समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने करीब 13 लाख सरकारी कर्मचारियों के परिवारों को लुभाने के लिए पुरानी पेंशन योजना फिर से लागू करने का वादा किया है. और गहलोत सरकार के इस फैसले के बाद अखिलेश यादव के इस मुद्दे को जबरदस्त सपोर्ट मिलना तय माना जा रहा है. गहलोत के इस फैसले का असर केवल यूपी चुनावों में ही नहीं, अगले साल कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों में भी होगा.

कांग्रेस के इस फैसले से यूपी में अखिलेश के लिए बनेगा माहौल

राजस्थान में पुरानी पेंशन बहाल होने के फैसले की खबर इस राज्य से करीब 1000 किलोमीटर दूर पूर्वी यूपी के एक गांव में तृतीय श्रेणी के कर्मचारी के व्हाट्सएप फैमिली पर खुशी का माहौल है. दरअसल इस परिवार के कई सदस्य सरकारी नौकरी में हैं. सभी की इतनी ही पगार है कि परिवार की दो वक्त की रोजी-रोटी का खर्च निकल सके. इस फैसले से परिवार को ऐसा लग रहा है कि यूपी में ही ये फैसला लिया गया है.

दरअसल इस परिवार को अब तक अखिलेश यादव की बात पर भरोसा नहीं हो रहा था. अखिलेश यादव अपनी चुनावी सभाओं में बार-बार में पुरानी पेंशन बहाली की बात कर रहे हैं. पर बीजेपी का कोर वोटर रहे इस परिवार को लगाता था कि वर्तमान सिनेरियो में यह संभव नहीं है. अगर ये संभव होता तो बीजेपी सरकार पहले ही लागू कर चुकी होती. पर राजस्थान सरकार के फैसले से इस परिवार को यह लग रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में भी पुरानी पेंशन को बहाल किया जा सकता है. बस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होनी चाहिए.

गोरखपुर माध्यमिक शिक्षक संघ के जिला अध्यक्ष दिग्विजय पांडेय कहते हैं कि बहुत से परिवार जिनके घरों में लोग सरकारी कर्मचारी हैं वो तो इस मुद्दे पर समाजवादी पार्टी को सपोर्ट कर ही रहे हैं, जिन लोगों के घरों में सरकारी कर्मचारी नहीं हैं वो लोग भी चाहते हैं कि पुरानी पेंशन बहाल हो. उनका दर्द है कि यूपी सरकार का शिक्षकों या शिक्षा के किसी भी मुद्दे पर शिक्षक संघ से बात करने में या मुद्दों को सुलझाने में विश्वास ही नहीं है. उनका कहना है कि पेंशन बहाली का काम राजस्थान ही नहीं यूपी में भी संभव है. सरकार ने जल्दी ही इस संबंध में नहीं कुछ किया तो 2024 के लोकसभा चुनावों में इसका डैमेज कंट्रोल मुश्किल हो जाएगा.

सरकारी कर्मचारी माहौल बदलने की कूवत रखते हैं

उत्तर प्रदेश में एक आम कहावत प्रचलन में आ चुकी है कि यूपी में जब भी बीजेपी की सरकार बनती है सरकारी कर्मचारी, शिक्षकों और छात्रों का अहित होता है. दरअसल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के कार्यकाल में प्रदेश में नकल विरोधी अध्यादेश लागू कर दिया गया था. नकल करते हुए छात्रों पर एफआईआर दर्ज हो जाती थी. सरकारी कर्मचारियों को टाइम से ऑफिस आने पर सख्ती कर दी गई थी. आंदोलनरत शिक्षकों की बात नहीं सुनी गई थी. हालांकि कल्याणसिंह जब दूसरी बार शपथ लिए तो उनकी ताकत घट चुकी थी. उनकी सरकार दूसरे दलों के सहारे चल रही थी वो असहाय हो चुके थे.

रामप्रकाश गुप्त के आते-आते बीजेपी सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी. फिर बीजेपी का इस तरह पतन हुआ कि 2 दशक बाद सत्ता में वापसी हो सकी. बीजेपी की लगातार हार के पीछे बहुत से कारण रहे हैं पर उनमें से ये भी कुछ कारण रहे हैं. माना जाता रहा है कि एक सरकारी कर्मचारी करीब 10 वोटों को प्रभावित करता है. अपने ऑफिस दफ्तर से शुरू होकर वोटिंग कराते समय तक सरकार से नाराज कर्मचारी सत्ताधारी दल को जमकर नुकसान करने में सक्षम होते हैं. वोटों को इनवैलिड करना या कराना, अक्षम लोगों का वोट खुद डाल देना से लेकर काउंटिंग के समय भी कई ऐसे मौके होते हैं कि कोई भी सरकारी कर्मचारी अपनी खीझ से सत्ताधारी दल को नुकसान पहुंचा सके. इसलिए ही सरकारी कर्मचारियों को कोई भी सरकार नाराज करने के मूड में नहीं होती है. पर कोरोना संकट के बाद सरकारी कर्मचारियों के मिलने वाले फंड में कई तरह की कटौती के चलते वो पहले ही सरकार से नाराज थे, बाद में पेंशन बहाली की मांग के जोर पकड़ने के चलते बीजेपी के कोर वोटर असमंजस में पड़ गए हैं. आंगनबाड़ी, आशा वर्कर, होमगार्ड, अल्पकालिक शिक्षकों, संविदा वाले कंप्यूटर ऑपरेटरों के कल्याण के लिए कोई चर्चा नहीं.

आश्चर्यजनक बात यह है कि मोटी सरकारी तनख्वाह पा रहे सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों के लिए तो बहुत सी बातें हो जाती हैं पर कॉन्ट्रेक्ट कर्मियों के लिए कोई राजनीतिक दल मुद्दा बनाता नजर नहीं आता. दरअसल कॉन्ट्रेक्ट पर काम करने वाले कर्मचारियों की हैसियत केवल वेतनमान में ही नहीं कम है बल्कि सरकार का कुछ बिगाड़ने का भी उनमें दम नहीं है. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि यह एकदम वैसे ही है जैसे कि बड़े किसानों के लिए पूरा देश एक हो गया था.

एमएसपी की गारंटी के लिए जिस तरह का आंदोलन हुआ काश उस तरह का आंदोलन कभी छोटे किसानों की भलाई के लिए भी होता. पुरानी पेंशन बहाली की बात हो रही है पर कोई भी आंगनबाड़ी कर्मियों, कांट्रेक्ट पर काम कर रहे हेल्थ वर्कर, शिक्षकों आदि के भलाई की बात नहीं सोच रहा है. यूपी-दिल्ली से लेकर पंजाब तक मे लगातार कॉन्ट्रेक्ट कर्मियों को पक्का करने की मांग हो रही है, पर सुनवाई की उम्मीद कहीं नहीं है. पर पेंशन को बहाल कर बहुत बड़ा आर्थिक भार सरकार ढोने को तैयार हो रही है.

नई पेंशन और उसके विरोध की वजह

नई पेंशन के विरोध की सबसे बड़ी वजह है इसका आगे-पीछे लागू होना. दरअसल कई राज्य सरकारों ने लंबी चली चर्चा के बाद अपने कर्मचारियों पर इसे आगे-पीछे लागू कर दिया है. यानि किसी का पहले लागू हो गया है तो किसी का बाद में. वहीं पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों ने इसे आज भी लागू नहीं किया है. दूसरी बड़ी समस्या यह है कि कर्मचारियों को इस बात का डर है कि सरकार पुरानी पेंशन के तहत भले ही कर्मचारियों के हिस्से से पैसे काटती है और अपने हिस्से से पैसा मिलाती है, लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें कोई गारंटी नहीं मिलती कि आखिर में उन्हें कितनी पेंशन मिलेगी. क्योंकि सरकार यह पैसा निजी कंपनियों के शेयर और म्यूचुअल फंड में निवेश करती है, जो जोखिम भरा होता है अगर इस निवेश में घाटा हुआ तो कर्मचारी के हिस्से से पैसा जाता है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिसमें रिटायरमेंट के बाद कर्मचारियों को 4000 या फिर 700 या 800 रुपए महीने के पेंशन मिले हैं.

लागू करने में दिक्कतें

पुरानी पेंशन लागू करने में कई दिक्कतें हैं, भले ही केंद्र सरकार ने कह दिया है कि राज्य सरकारें इसे अपने स्तर पर लागू कर सकती हैं. लेकिन आर्थिक मामलों के जानकारों का मानना है कि अगर राज्य सरकारें पुरानी पेंशन लागू करती हैं तो ऐसे में सरकारी खजाने पर भार पड़ेगा. और दूसरी दिक्कत यह है कि साल 2005 से ही राज्य सरकारें यह पैसा निजी कंपनियों में निवेश कर रही हैं और अगर मैच्योरिटी से पहले वह अपना रकम वापस लेती हैं तो शर्तों के अनुसार उसमें कटौती भी होगी. इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरकार पहले कॉपर्स फंड बनाकर निवेश करती थीं, वह अभी यही कर रही हैं. लेकिन इसमें अगर नुकसान होता है तो यह पूरा नुकसान सरकार को वहन करना पड़ेगा.

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