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IMS-BHU ने कोवैक्सीन पर शोध को किया खारिज, रिसर्च की गाइडलाइन बदली

वाराणसी: IMS-BHU के वैज्ञानिकों ने कोवैक्सीन पर शोध और उसके दुष्परिणाम की जानकारी के मामले में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद को अपना जवाब भेज दिया है. इसमें IMS-BHU ने शोध को गलत बताया है. साथ ही शोध में काम करने वाले डॉक्टरों ने इस प्रकरण में खेद जताया है.

यह शोध जब सार्वजनिक हुआ तो IMS-BHU के निदेशक ने इस पर जांच के लिए टीम गठित की थी. शोध में मानकों को नजरअंदाज करने का मामला सामने आया था. वहीं दूसरी ओर इस शोध रिपोर्ट में आईसीएमआर का नाम लेकर, उसके प्रति आभार जताया गया था. अब आईसीएमआर ने इसे हटाने के लिए कहा है. वहीं IMS-BHU ने रिसर्च गाइडलाइन में बदलाव कर दिया है.

बता दें कि, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के फार्माकोलॉजी और जीरियाट्रिक विभाग में संयुक्त रूप से कोवैक्सीन पर शोध हुआ था. इस शोध में 30 फीसदी से अधिक किशोरों और वयस्कों पर दुष्प्रभाव का दावा किया गया था. इस रिपोर्ट को विभाग के शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक कर दिया था, जिसके बाद हड़कंप मच गया था.

इस रिपोर्ट के आते ही IMS-BHU के निदेशक प्रोफेसर एसएन संखवार ने इसकी जांच के लिए एक टीम गठित की थी. जांच में पता चला कि जिन युवाओं को लेकर शोध की बात कही गई है उनसे फोन पर जानकारी ली गई है. किसी भी तरह का टेस्ट नहीं किया गया है. ऐसे में यह मानकों के विपरीत है.

कोवैक्सीन को लेकर शोध पर उठाए गए ये सवाल

  • शोध रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि जिन्हें वैक्सीन लगी और जिन्हें नहीं लगी उनका तुलनात्मक अध्ययन हुआ है. इसे कोरोना वैक्सिनेशन से नहीं जोड़ा जा सकता.
  • इस बात का जिक्र नहीं है कि जिन्हें वैक्सीन लगने के बाद कोई परेशानी हुई क्या उन्हें पहले से ऐसी कोई परेशानी थी या नहीं. ऐसे में रिपोर्ट में आधारभूत जानकारी का अभाव है. इन परेशानियों को वैक्सिनेशन से अभी नहीं जोड़ा जा सकता.
  • रिपोर्ट में एडवर्स इवेंट्स ऑफ स्पेशल इंटेरेस्ट (एईएसआई) का हवाला दिया गया है. उससे अध्ययन के तरीके मेल नहीं खाते.
  • जिन लोगों को अध्ययन में शामिल किया गया, उनसे वैक्सिनेशन के एक साल बाद टेलीफोन के जरिए आंकड़े लिए गए. बिना क्लीनिकल या फिजीकल सत्यापन के यह रिपोर्ट तैयार की गई गई है. ऐसे में लगता है कि यह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर किया गया है.

आईसीएमआर को भेजा गया डॉक्टरों का जवाब: आईसीएमआर (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद) ने उसका नाम जोड़ने पर कई सवाल उठाए थे. इसके साथ ही महानिदेशक डॉ. राजीव बहल ने जीरियाट्रिक विभागाध्यक्ष प्रो. शुभ शंख चक्रवर्ती और फार्माकॉलोजी विभाग की डॉ. उपिंदर कौर को नोटिस जारी किया था. साथ ही स्प्रिंगर नेचर जर्नल को पत्र लिखकर आईसीएमआर का नाम हटाने के लिए कहा गया है. डॉ. राजीव बहल ने आपत्ति जताई कि आईसीएमआर को गलत और भ्रामक तरीके से वर्णित किया गया है. शोध से जुड़े विभागों के डॉक्टरों ने अपना जवाब IMS-BHU के निदेशक को भेज दिया है.

शोध में मानकों पर ध्यान नहीं दिया गया: IMS-BHU के निदेशक प्रो. एसएन संखवार ने डॉक्टरों का जवाब आईसीएमआर को भेज दिया है. उनका कहना है कि इस शोध के विषय में मिलने वाली प्रतिक्रियाएं और आईसीएमआर की ओर से अध्ययन में शामिल सदस्यों को भेजे जाने वाले जवाब विश्वविद्यालय की जानकारी में हैं. वहीं उन्होंने बताया कि कोवैक्सीन शोध को लेकर कमेटी ने जांच पूरी कर ली है.

टीम का नेतृत्व IMS-BHU के डीन रिसर्च प्रो. गोपालनाथ कर रहे थे. उनके साथ टीम में तीन और सदस्य शामिल थे. सोमवार को कमेटी ने 13 पेज के इस रिसर्च का अध्ययन किया तो पाया कि यह शोध जल्दबाजी में किया गया है. इस शोध मे मानकों पर ध्यान नहीं दिया गया है.

रिसर्च गाइडलाइन में किया गया बदलाव: IMS-BHU की जांच कमेटी ने आईसीएमआर द्वारा उठाए गए सवालों को भी सही माना है. इसके बाद अब IMS-BHU ने रिसर्च गाइडलाइन में बदलाव किया है. IMS-BHU में होने वाले शोध की अब पहले स्कीनिंग की जाएगी.

इसके बाद एक कमेटी शोध में प्रयोग किए गए सभी मानकों का अध्ययन करेगी. अगर कमेटी को वह अध्ययन सही लगता है तभी वह शोध जर्नल में प्रकाशित करने के लिए भेजा जाएगा. इस कमेटी में डीन रिसर्च अध्यक्ष होंगे और उनके साथ कुल पांच सदस्य होंगे. ये कमेटी शोध पत्र का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही रिसर्च पेपर को प्रकाशित करने की अनुमति देगी.

रिसर्च पेपर प्रकाशित कराने का बदला नियम: प्रो. संखवार ने बताया कि शोध कार्य के लिए डॉक्टरों को एथिकल कमेटी की अनुमति लेनी होगी. इसके बाद रिसर्च प्रक्रिया की जाएगी. जब रिसर्च पूरी हो जाएगी तो संस्थान में गठित कमेटी इसका अध्ययन करेगी. सभी मानकों आदि का विस्तार से अध्ययन किया जाएगा.

जब सबकुछ सही मिलेगा तब इस शोधपत्र को प्रकाशन के लिए भेजने के लिए अंतिम मुहर लगाई जाएगी. उन्होंने कहा कि शोध की गुवत्ता के लिए संस्थान में इसकी शुरुआत की गई है. वहीं विवाद के शुरू होने पर प्रो. संखवार ने कहा था कि यह संस्थान की छवि को लेकर भी नकारात्मक व्यवहार है. इस तरह का आधा-अधूरा शोधपत्र सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए.

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