दो युवा पत्रकारों की अचानक मौत से पत्रकारिता जगत में दुख की लहर

- ऑक्सीजन न मिलने से पत्रकार सुहैल अरशद खान की मौत, 108 एम्बुलेंस की लापरवाही
- पत्रकार शमीम अहमद का निधन, डिप्रेशन को बताया जा रहा कारण
ख़्वाजा एक्सप्रेस
लखनऊ की विकास-गाथा में दो साँसों का मौन! जब कलम के सिपाही ही दम तोड़ गए। राजधानी लखनऊ! जिसे हम नवाबों के शहर, तहज़ीब की नगरी और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के केंद्र के रूप में जानते हैं। मगर अफसोस, इसी चमचमाती राजधानी में, दो युवा पत्रकारों की साँसें जिस ढंग से रूकीं, वह समूचे सुशासन और विकास के दावों पर एक करारा तमाचा है। यह सिर्फ दो व्यक्तियों की मौत नहीं, यह उस व्यवस्था की मौत है, जिसके लिए ये पत्रकार अपनी कलम घिसते रहे।
तड़प-तड़प कर मौत, 108 में भी नो ऑक्सीजन
सुहैल अरशद खान, एक युवा कलमकार, जिसका काम था समाज की हर तकलीफ को उजागर करना। लेकिन जब खुद उन पर आफत आई, तो इस विश्व-स्तरीय चिकित्सा व्यवस्था ने उनके लिए क्या दिया? एक सरकारी 108 एम्बुलेंस, जो जीवन-रेखा बननी चाहिए थी, वह उनके लिए मौत की गाड़ी बन गई।
हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ! दुनिया से लड़ने वाले और पीड़ितों की मदद करने वाले इस पत्रकार को, राजधानी के बीचों-बीच, सबसे मूलभूत चीज़, ऑक्सीजन न मिल सकी। ये कैसी विडंबना है कि जिस पत्रकार ने शायद न जाने कितनी बार स्वास्थ्य विभाग की पोल खोली होगी, उसी विभाग की लापरवाही ने उसे तड़प-तड़प कर दम तोड़ने पर मजबूर कर दिया।
सवाल तो बनता है अगर राजधानी के केंद्र में एक पत्रकार का यह हाल है, तो उन आम जनता का क्या होगा, जिन तक कभी एम्बुलेंस पहुँच ही नहीं पाती? यह घटना स्वास्थ्य विभाग की नहीं, सत्ता के अहंकार की खुली पोल है। अब वही सत्ता इस लापरवाही पर लीपापोती करेगी और फिर किसी बहादुर अधिकारी को निलम्बित कर कड़ी कार्रवाई का नाटक करेगी। मगर, एक जान तो चली गई!
कलम की धार पर डिप्रेशन का ज़ंग!
दूसरी दुखद कहानी है मोहम्मद शमीम अहमद की। 20 वर्षों तक भ्रष्टाचार के खिलाफ अकेले खड़े रहने वाले, आरटीआई की तलवार चलाने वाले एक निडर पत्रकार! जिन्होंने भ्रष्ट अधिकारी को यह कहकर बेनकाब किया कि, तुम मुसलमान हो, जवाब नहीं देंगे, इस हौसले वाले इंसान का अंत हुआ, डिप्रेशन से!
सोचिए, जो व्यक्ति भ्रष्ट अधिकारियों के नाक में नकेल कसने में माहिर था, उसे जीवन की व्यक्तिगत त्रासदियों ने भीतर से कितना तोड़ दिया होगा।
यह समाज, यह व्यवस्था, क्या यही फल देती है उन लोगों को, जो अपनी पूरी ज़िंदगी समाज को बेहतर बनाने में लगा देते हैं? शमीम अहमद जैसे लोग, जो निडरता से अपने कलाम की धार पर ज़िंदगी गुजार देते हैं, उनके लिए समाज में कोई सहारा क्यों नहीं होता? जब वे भ्रष्टाचारियों से लड़ते हैं, तब तो समाज तालियाँ बजाता है, लेकिन जब वे निजी दुःख के दलदल में धँसते हैं, तो उन्हें अकेला क्यों छोड़ दिया जाता है?
शोक सिर्फ फेसबुक पर!
आज जब उनकी मृत्यु की खबर हमें सोशल मीडिया के माध्यम से मिली, तो दुख की एक लहर दौड़ गई। हम अपनी व्यस्तताओं में इतने खोए रहे कि उनके दुखों का अंदाज़ा भी नहीं लगा पाए। अब शोक सभा में शामिल न हो पाने का अफ़सोस जता रहे हैं।
यह दिखाता है कि हम वीआईपी संस्कृति में जीने वाले लोग, समाज के लिए काम करने वालों को सिर्फ उनकी कहानियों तक याद रखते हैं। जब तक वे हमारी ज़रूरत हैं, वे हमारे हीरो हैं। और जब वे टूट जाते हैं, तो हम उन्हें अकेला छोड़ देते हैं।
सुहैल अरशद खान और शमीम अहमद, आप दोनों को अंतिम नमन। आप शायद व्यवस्था से लड़ते हुए थक गए थे, इसलिए ईश्वर ने आपको आराम दे दिया। हमारी प्रार्थना है कि आपके परिवार को जल्द से जल्द सब्र मिले, क्योंकि आपकी कमी तो यह विकासशील समाज कभी पूरी नहीं कर पाएगा।