मोहम्मद आसीम ने अपने जिंदगी का रखा पहला रोजा
सन्तकबीरनगर। रोजा इस्लाम का एक रुकन है रोज़े की इस्लाम में बड़ी अहमियत है जब आदमी अपने ईश्वर के आज्ञा पालन के लिए उसके हुक्म के मुताबिक भूखा प्यासा रहता है तो ईश्वर ऐसे बंदे से बहुत खुश होता है ईश्वर के आज्ञा पालन में ही बंदे की भलाई है जिसने पैदा किया उसकी मानकर जिंदगी गुज़ारना ये बन्दे की जिम्मेदारी है रोजा उसी के मानने का एक एहसास है रोजा बड़े पुन्य का काम है रोज़े से भूखे की भूख प्यासे की प्यास का एहसास होता है रोज़े से इंसान के अन्दर परहेजगारी पैदा होती है जिससे इंसान बुराई एंव बेहयाई से बचता है बुराई से नफरत पैदा होती है रोजा हर मुसलमान आकिल बालिग मर्द व औरत पर फ़र्ज़ है जिसका पालन अक्सर लोग करते हैं उनको देख कर बच्चों के अंदर भी रोजा रखने का जज़्बा पैदा होता है रोजा इस्लाम का एक अहम रुकन है इसलिए बचपन से ही बच्चों के अन्दर यह आदत पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए मोहम्मद आसीम पुत्र महबूब आलम ग्राम जातेडीहा दुबौलिया जिसकी उम्र 6 वर्ष है उन्होंने अपने ज़िदगी का पहला रोजा रख कर ये एहसास दिलाया की अगर ठान ले तो कोई काम उसके लिए मुश्किल नहीं है लिहाजा हम सब को रोजा रखना चाहिए रोज़े का बड़ा सवाब है रोजा बन्दे को ईश्वर से जोड़ता है हमारे हजरत मोहम्मद सल्लाहू अलैहि व सल्लम ने फरमाया की जन्नत के 8 दरवाजे हैं जिनमे से एक का नाम रय्यान है उससे जन्नत में सिर्फ रोज़े दार दाखिल होंगे लिहाजा हम भी खुशी खुशी रोजा रख्खे ताकि हमें भी उस दरवाजे से जन्नत में दाखिला मिले।