सही जिन्दगी गुजारने की तरबियत का महीना है, माहे रमज़ान
कलीमुल्लाह
- जिस्म से कैंसर के सेल्स को खत्म कर देता है, रोज़ा
सिद्धार्थनगर। अरबी महीना माहे रमज़ान के तीस रोजा रखने से इंसान जिस्मानी और रूहानी तौर पर सेहतमंद हो जाता हैं। इसलिए नबी ए करीम सल्लल्ल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि ऐ लोगों रोज़ा रखो, और सेहतमंद हो जाओ। इस बात की तस्दीक नोबल प्राइज याफ्ता जापानी साइंटिस्ट सेल बायोलॉजिस्ट योशिनोरी ओसुमी ने रिसर्च के बाद बताया कि जब हम रोज़ा रखते हैं, तो हमारे जिस्म से गिज़ाईयत खत्म होने लगती है। तो भूख के दौरान हमारे जिस्म के अन्दर जब खाना नही पहुंचता है, तो हमारा जिस्म अपने अंदर मौजूद जहरीले सेल्स को खाना शुरू कर देता है, जो हमारे जिस्म के अंदर कैंसर का सबब बनते हैं। तिब्बी ज़बान में हम इस अमल को ऑटोफैजी कहा जाता है।
जापानी साइंटिस्ट ने कहा कि अगर लोग सेहतमंद रहना चाहते हैं तो उन्हें साल में कम से कम 20 से 25 दिन तकरीबन 9 से 10 घंटे का रोज़ा जरूर रखें। यही बात नबी ए करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने चौदह सौ साल पहले बताया था कि ऐ लोगो तुम लोग सेहतमंद रहना चाहते हो, तो रोज़ा रखो। अल्लाह ने इबादत के अंदर बहुत सारी बीमारियों का इलाज और शिफा रखी है। इस तरह रोज़ा अपने अंदर बेपनाह जिस्मानी, रूहानी, नफसियाती और तिब्बी फायदा रखता है। और इंसान को सही जिन्दगी गुजारने का तरबियत देता हैं। पूरे दिन सिर्फ भूखे प्यासे रहने का नाम रोज़ा नहीं है। हाथ, पैर, नाक,आंख, ज़बान यानी पूरे जिस्म को बुराइयों से रुक जाने का नाम रोज़ा है। झूठ, गीबत, चुगली, लड़ाई मारपीट, चोरी, बेईमानी, बेहयाई, जैसे सभी बुरे कामों और बुरी आदतों से बाज़ नही आता है, तो ऐसे बंदे को रोज़ा रखने से कोई फायदा नहीं होता। रोज़ा, इंसान को सही जिन्दगी गुजारने की तरबियत देता है।
पूरे एक महीने के रोजे को कुल तीन अशरह में बांटा गया गया है। पहला अशरह रहमत का, दूसरा मगफिरत का, तीसरा जहन्नम से निजात यानी आजादी का होता है। आखरी आशरह की ताक रातों में एक रात लैलतुलकद्र की होती है, उस एक रात की इबादत हजार महीने यानी 83 साल 4 महीने की इबादत से बेहतर होती है। लैलतुलकद्र में ही अल्लाह पाक ने कुरआन मजीद को नाजिल किया।
नबी ए करीम स0अ0व0 ने फरमाया कि जिसने भी ईमान और एहतेसाब की निय्यत से रोज़ा रखा उसके गुजिश्ता सारे गुनाह मुआफ कर दिए जाते हैं। इस महीने में जितनी भी नेकियां की जाती है उसका सत्तर गुना सवाब मिलता है।
इस महीने में हर साहिबे हैसियत को अपने माल व जर का ढाई फीसद हिस्सा, गरीबों और मिस्कीनों में बांटकर उनकी मदद करना लाज़मी यानी फर्ज होता है। और ईद की नमाज से पहले हर बालिग नाबालिग फर्द की तरफ दो किलो छः सौ सडसढ़ ग्राम गेहूं, जौ, चना यानी कोई भी अनाज फितरह गरीबों मिस्कीनो को देना लाज़मी है, ताकि हर गरीब इंसान भी ईद की खुशियां मना सके। नबी ए करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया कि जो इंसान माहे रमज़ान में रोज़ा रखकर, नमाज़ पढ़कर, कुरआन की तिलावत करके, सदका, जकात, फितरह गरीबों में बांट करके अपने गुनाहों से तौबा करते हुए मगफिरत न करा ले, उसके जैसा बदनसीब इंसान इस जहान में कोई नही हैं।